Thursday, April 21, 2011

बुझती चिंगारियाँ

संक्रांति के नभ पर दिखते सेकड़ों सतरंगी ध्वज,
मानो नये नवेले से,
क्शित्ज पर स्थापित मूक मूरत से,
हैं यह बिल्कुल अकेले से,
निर्दोषों के खून से लत-पथ,
फिर भी रक्त का एक चिन्ह नहीं है,
क्रांति के शोर का दब-दबा है,
त्याग का भाव तक नहीं है,
अशांत भूक से प्रज्वलित,
लेकिन अग्नि का तेजमात्र नहीं है,



यह पैसों के पत्ते,
काठी से जुड़े दिखते हों चाहे,
चिपके हैं ये कुर्सी के पैरों से,
इन्हे थामे हाथों में ज़िंदा आत्मा नहीं है,
इन में करुणा की आशा भी नही है,
झूठ के कीचड़ से उभरे,
यह सिर्फ़ हाथ हैं,
जिस्म का कोई संकेत भी नही है.
हर संक्रांत में काले साए की तरह उभरते,
रात पर अमावस का कालापन ओढ़े
सारे सपनों के कफ़न लिए,
सेकड़ों झूठ को सचाई का सेहरा पहनकर,
पूनम की आशा दिलाते,
यह ध्वज थामे हाथ उपस्थित हो जाते हैं,


कई तूफ़ानी हवाएँ चली,
विधवाओं के आंसूओ में वो अंगारे बहे,
माँओं की छातियाँ सूख गयी,
अनाथ बच्चे भी रोते बिलखते सो गये,
लेकिन यह निष्ठुर ध्वज आज तक कभी लहराये नही.

संजय चंद्रशेखर नायर
२०११ एप्रिल १९

1 comment:

krishna shekhar nair said...

fantastically written brother!